संबंधित पाठ्यक्रम:

सामान्य अध्ययन-3: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव आकलन।

संदर्भ: हाल ही में केंद्रीय वैज्ञानिक समिति ने कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों में सल्फर-शोधन उपकरणों की आवश्यकता न होने की अनुशंसा की है।   

अन्य संबंधित जानकारी:        

  • भारत में वार्षिक सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) उत्सर्जन 2010 में 4,000 किलोटन से बढ़कर 2022 में 6,000 किलोटन हो गया है।
  • प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार की अध्यक्षता में गठित एक उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समिति ने सिफारिश की है कि भारत को अपनी एक दशक पुरानी उस नीति को समाप्त कर देना चाहिए, जिसके तहत सभी कोयला-आधारित ताप विद्युत संयंत्रों में फ्लू गैस डीसल्फराइजेशन (FGD) इकाइयों की स्थापना अनिवार्य की गई थी।  
  • यद्यपि भारत के 600 ताप विद्युत संयंत्रों में से 92% ने अभी तक FGD इकाइयां स्थापित नहीं की हैं, लेकिन नई सिफारिश से लगभग 80% को ऐसा करने की आवश्यकता से छूट मिल जाएगी। 

फ्लू गैस डिसल्फराइजेशन (FGD): 

  • फ्लू गैस डीसल्फराइजेशन (FGD) एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से जीवाश्म ईंधनों — जैसे कोयला, तेल या प्राकृतिक गैस — के दहन से उत्पन्न फ्लू (निकास) गैस से सल्फर डाइऑक्साइड (SO) को हटाया जाता है। यह प्रक्रिया अम्लीय वर्षा को कम करने, वायु गुणवत्ता में सुधार करने तथा जनस्वास्थ्य की सुरक्षा में सहायक होती है।   
  • ये पर्यावरणीय विनियमों का पालन सुनिश्चित करने तथा सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) उत्सर्जन के हानिकारक प्रभावों को कम करने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं।
  • हानिकारक सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) उत्सर्जन में कटौती करने के लिए ताप विद्युत संयंत्रों में FGD इकाइयों को पुनः स्थापित किया जाना आवश्यक है।

समिति के मुख्य निष्कर्ष:

  • यह निर्णय CSIR-NEERI, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज तथा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली द्वारा प्रस्तुत तीन रिपोर्टों पर आधारित है।
  • समिति की सिफारिश के मार्गदर्शक सिद्धांत इस प्रकार हैं:
    • देश भर में परिवेशी वायु में SO2 का स्तर लगभग 10-20 माइक्रोग्राम/घन मीटर है, जो भारत के वायु गुणवत्ता मानदंड 80 से काफी नीचे है।
    • चूंकि भारतीय कोयले में सल्फर कम होता है, तथा अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि FGD इकाइयों वाले ताप विद्युत संयंत्रों के निकट के शहरों में सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) की सांद्रता, बिना FGD इकाइयों वाले शहरों से बहुत अधिक भिन्न नहीं है – तथा सभी रीडिंग स्वीकार्य सीमा के भीतर ही रहती हैं।
  • समिति ने सल्फेट्स को लेकर आशंकाएँ जताईं — ये सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) के वायुमंडल में एक निश्चित स्तर तक पहुँचने पर उत्पन्न होने वाले संभावित उप-उत्पाद होते हैं, जिससे कणिकीय कण (पार्टिकुलेट मैटर) निर्मित करते हैं।     
    • उन्होंने देश भर में उपलब्ध आंकड़ों का हवाला दिया, जिसमें तात्विक सल्फर का स्तर कम (अधिकतम 8 µg/m³) पाया गया है, जिससे FGD द्वारा कणिकीय कण (पार्टिकुलेट मैटर) में कमी लाना अप्रभावी सिद्ध होता है।     
  • रिपोर्ट में यह भी तर्क दिया गया है कि सभी ताप विद्युत संयंत्रों में FGD स्थापित करने से उच्च विद्युत खपत के कारण 2025 से 2030 के बीच लगभग 69 मिलियन टन CO₂ उत्सर्जन बढ़ सकता है, जबकि अल्पकालिक SO₂ उत्सर्जन केवल 17 मिलियन टन कम होगा — भारत के निम्न-सल्फर युक्त कोयले को देखते हुए यह असंतुलित पर्यावरणीय विनिमय उचित नहीं माना जाता।   

समिति की मुख्य सिफारिशें:     

समिति एक स्तरीय दृष्टिकोण की सिफारिश करती है:

  • श्रेणी A:
    • राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से 10 किलोमीटर के अंदर या एक मिलियन से अधिक जनसंख्या वाले शहरों के निकट स्थित ताप विद्युत संयंत्रों (TPPs) को FGD इकाइयाँ स्थापित करनी चाहिए।
    • ऐसे 66 संयंत्र हैं, और उनमें से केवल 14 ने ही FGD स्थापित किए हैं। वर्तमान में, इन सभी संयंत्रों को 2027 तक इसका अनुपालन करना आवश्यक है। 
  • श्रेणी B:
    • गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्रों या गैर-प्राप्ति शहरों के निकट स्थित TPP को मामले-दर-मामले आधार पर छूट देने पर विचार किया जा सकता है। 
    • ऐसे 72 संयंत्र हैं, जिनमें से केवल चार में ही FGD स्थापित है। इन संयंत्रों की वर्तमान समय-सीमा 2028 है।
  • श्रेणी C:
    • शेष TPP, विशेषकर पुरानी इकाइयों को FGD अधिदेश से छूट दी जा सकती है।
    • शेष 462 संयंत्र श्रेणी C के अंतर्गत आते हैं, जिनमें से 32 में FGD स्थापित किए गए हैं।
    • इन संयंत्रों को 2029 तक की समय-सीमा दी गई है, लेकिन समिति ने अब सिफारिश की है कि श्रेणी C के संयंत्रों को पूरी तरह से छूट दी जाए।    
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