संदर्भ:
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल करने को यथावत (एक आदेश के माध्यम से) रखा।
अन्य संबंधित जानकारी:
यह आदेश (डॉ बलराम सिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले में) वर्ष 1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल करने की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर आधारित था।
पूर्व सांसद सुब्रमणियन स्वामी, डॉ. बलराम सिंह और अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय सहित कई याचिकाकर्ताओं ने निम्न तर्क दिए;
- ये शब्द पूर्वव्यापी प्रभाव से (अर्थात् जिस तिथि को संविधान सभा ने 26 नवम्बर, 1949 को संविधान को अपनाया था) जोड़े गए, जो संविधान के साथ धोखाधड़ी के समान है।
निर्णय के मुख्य बिन्दु :
उच्चतम न्यायालय के अनुसार :
- ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का तात्पर्य ऐसे गणराज्य से है जो सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान रखता है।
‘समाजवादी’ शब्द एक ऐसे गणराज्य का प्रतिनिधित्व करता है जो सभी प्रकार के सामाजिक, राजनीतिक,आर्थिक शोषण को समाप्त करने के लिए समर्पित है। उच्चतम न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि:
- भारतीय संदर्भ में ‘समाजवाद’ शब्द का अर्थ कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्रतिबिंबित करता है। है।
- संविधान या प्रस्तावना, वामपंथी या दक्षिणपंथी विचारधारा के आधार पर किसी विशिष्ट आर्थिक नीति या संरचना के निर्माण का निर्देश नहीं देती है।
- ‘समाजवादी’ कल्याणकारी राज्य तथा अवसर की समानता सुनिश्चित करने की प्रतिबद्धता पर भी बल दिया गया है।
- स्वतंत्रता के बाद से भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था मॉडल को अपनाया है, जहां वर्षों से सरकारी और निजी क्षेत्र संयुक्त रूप से कार्य कर रहे है।
- भारत ने अपनी भारतीय धर्मनिरपेक्षता विकसित की है, जिसमें राज्य किसी धर्म विशेष का समर्थन नहीं करता है तथा सभी धर्मों के प्रति समान भाव रखता है। यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में निहित है, जो धार्मिक आधार पर नागरिकों के विरुद्ध भेदभाव का निषेध करते हैं तथा कानूनों के समान संरक्षण और सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर की गारंटी देते हैं।
संसद को अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान में संशोधन करने की निर्विवाद शक्ति प्राप्त थी। संशोधन करने की उसकी शक्ति प्रस्तावना तक विस्तारित थी।
- न्यायालय ने प्रस्तावना में पूर्वव्यापी संशोधन की पुष्टि करते हुए कहा कि इसे अपनाने की तिथि से अनुच्छेद 368 के तहत शक्ति में कटौती नहीं होगी।
- प्रस्तावना संविधान का अविभाज्य भाग थी।
- उच्चतम न्यायालय के अनुसार प्रस्तावना के मूल सिद्धांत, स्थिति और अवसर की समानता, बंधुत्व, सम्मान और स्वतंत्रता, संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को प्रतिबिंबित करते हैं।
प्रस्तावना
प्रस्तावना में संशोधन:
42वां संशोधन अधिनियम, 1976: केशवानंद भारती मामले में यह स्वीकार किया गया कि प्रस्तावना संविधान का एक भाग है।
- संविधान के एक भाग के रूप में, प्रस्तावना को अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संशोधित किया जा सकता है लेकिन प्रस्तावना के मूल ढांचे में संशोधन नहीं किया जा सकता।
- अब तक, प्रस्तावना को 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से एक बार संशोधित किया गया है।
‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ शब्दों को 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से प्रस्तावना में जोड़ा गया।
- ‘संप्रभु’ और ‘लोकतांत्रिक’ के बीच ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए।
- ‘राष्ट्र की एकता’ शब्द को ‘राष्ट्र की एकता और अखंडता’ से प्रतिस्थापित किया गया।
प्रस्तावना की स्थिति
(I) बेरुबारी मामला (1960):
- यह संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत बेरुबारी संघ से संबंधित भारत-पाकिस्तान समझौते को लागू करने के लिए था।
- उच्चतम न्यायालय के अनुसार संविधान की व्याख्या प्रस्तावना के के आलोक में की जा सकती है लेकिन प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है। अतः संविधान की प्रस्तावना में संशोधन नहीं किया जा सकता।
(II) केशवानंद भारती मामला (1973):
उच्चतम न्यायालय के अनुसार प्रस्तावना संविधान का एक भाग है, इसलिए प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है, परंतु इसके मूल स्वरूप में कोई संशोधन नहीं किया जा सकता । प्रस्तावना के संदर्भ में निम्नलिखित बातें ध्यान में रखी जानी चाहिए:
- प्रस्तावना न तो शक्ति का स्रोत है और न ही विधायिका की शक्ति पर कोई सीमा है।
- यह प्रकृति में गैर-न्यायसंगत है अर्थात इसके प्रावधान न्यायालयों में लागू नहीं हो सकते।
(III) भारतीय जीवन बीमा निगम मामला (1995): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने पुनः स्वीकारा कि प्रस्तावना संविधान का एक अभिन्न अंग है, अतः न्यायालय द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है।