संदर्भ:
भारत के राष्ट्रपति ने राज्यपालों के पदों में बड़े फेरबदल करते हुए दो नए राज्यपालों की नियुक्ति की तथा तीन अन्य को पदभार सौंपा है।
अन्य संबंधित जानकारी
पूर्व केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला को मणिपुर का नया राज्यपाल नियुक्त किया गया है जबकि पूर्व केंद्रीय मंत्री जनरल वी. के. सिंह (सेवानिवृत्त) को मिजोरम का नया राज्यपाल बनाया गया है।
नई नियुक्तियों के अलावा तीन मौजूदा राज्यपालों को अन्य राज्यों में स्थानांतरित किया गया है-
- केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान को पुनः बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया गया है।
- मिजोरम के राज्यपाल हरि बाबू कंभमपति को ओडिशा का राज्यपाल नियुक्त किया गया है।
- बिहार के राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर को पुनः केरल का राज्यपाल नियुक्त किया गया है।
भारत में राज्यपाल का पद
राज्यपाल, राज्य का मुख्य कार्यकारी प्रमुख होता है। राष्ट्रपति की तरह, वह नाममात्र का कार्यकारी प्रमुख (संवैधानिक प्रमुख) होता है। राज्यपाल केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में भी कार्य करता है। इसलिए, राज्यपाल के पद की दोहरी भूमिका होती है।
राज्यपाल की नियुक्ति: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 155 के तहत, किसी राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उनके हस्ताक्षर एवं मुहर सहित वारंट द्वारा की जाती है।
राज्यपाल पद के लिए शर्तें: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 158 के तहत –
- राज्यपाल संसद के किसी सदन का या प्रथम अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं हो सकता और यदि संसद के किसी सदन का या किसी ऐसे राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का सदस्य राज्यपाल नियुक्त हो जाता है तो यह समझा जाएगा कि उसने राज्यपाल के रूप में अपना पद ग्रहण करने की तारीख से उस सदन में अपना स्थान रिक्त कर दिया है।
- राज्यपाल किसी लाभ के पद पर आसीन नहीं रह सकता।
राज्यपाल के रूप में नियुक्ति के लिए योग्यताएं: अनुच्छेद 157 किसी व्यक्ति को राज्यपाल नियुक्त करने के लिए दो योग्यताएं निर्धारित है –
- वह भारत का नागरिक होना चाहिए।
- वह35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
राज्यपाल का कार्यकाल एवं निष्कासन: राज्यपाल अपने पदभार ग्रहण करने की तिथि से पांच वर्ष की अवधि के लिए पद पर बने रहते हैं। पांच वर्ष की यह अवधि राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर है। इसके अलावा वह राष्ट्रपति को त्यागपत्र देकर किसी भी समय त्याग पत्र दे सकता हैं।
भारत में राज्यपाल के कार्यालय से संबंधित चिंताएं और चुनौतियां
- कार्यालय का राजनीतिकरण: राज्यपालों पर अक्सर केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में काम करने और संघीय ढांचे को कमजोर करने का आरोप लगाया जाता है।
- विधेयकों पर स्वीकृति में विलंब: राज्यपालों द्वारा राज्य विधान पर निर्णय लेने में विलंब के कारण राज्य सरकारों के साथ तनाव उत्पन्न होता है।
- विवेकाधीन शक्तियों का बार-बार दुरुपयोग: राज्यपालों पर दिन-प्रतिदिन के कामकाज में अनावश्यक हस्तक्षेप करके राज्य मशीनरी के प्रशासनिक कामकाज में बाधा डालने का आरोप भी लगाया जाता है।
राज्यपाल की भूमिका के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय
शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974): सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल, मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य है।
रघुकुल तिलक वाद (1979): सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकारा राज्यपालों की नियुक्ति केंद्र सरकार के माध्यम से राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, लेकिन राज्यपाल केंद्र सरकार का कर्मचारी या सेवक नहीं है। इस प्रकार वह केंद्र सरकार के अधीन नहीं है।
एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): यह मामला अनुच्छेद 356 और राज्य सरकार को बर्खास्त करने के राज्यपाल के अधिकार पर केंद्रित था ।
- सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार राज्य सरकार के पास बहुमत है या नहीं, इसका निर्धारण राज्यपाल के व्यक्तिपरक निर्णय पर निर्भर रहने के बजाय विधान सभा में किया जाना चाहिए।
बी. पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010): सर्वोच्च न्यायालय ने प्रसादपर्यंत सिद्धांत पर बहुत गहराई से विचार किया। राज्यपाल को अपनी इच्छानुसार हटाने के राष्ट्रपति के अधिकार को बरकरार रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संघ स्तर पर सरकार में परिवर्तन या संघ सरकार की नीतियों और विचारधाराओं से भिन्नता राज्यपाल को हटाने का आधार नहीं हो सकती।