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सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2: भारतीय संविधान-ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्वपूर्ण प्रावधान और मूल संरचना।

सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2: जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की मुख्य विशेषताएं।

संदर्भ:

सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग से कहा कि वह बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के लिए आधार, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड को स्वीकार्य दस्तावेज के रूप में स्वीकार करे।

अन्य संबंधित जानकारी 

  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मतदाता सूची की पवित्रता इस बात में निहित है कि यह मतदान के अधिकार की रक्षा करती है। कोई भी ऐसा नागरिक जो योग्य है, उसे उसके मूल लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।
  • 24 जून को, भारत निर्वाचन आयोग (ECI) ने घोषणा की कि बिहार के लगभग 8 करोड़ मतदाताओं को 26 जुलाई तक दोबारा मतदाता के रूप में पंजीकरण कराना अनिवार्य होगा।
  • मतदाता दस्तावेजों की पुन: जाँच के लिए निर्वाचन आयोग द्वारा उठाए गए इस कदम का उद्देश्य तथाकथित “विदेशी अवैध प्रवासियों” को मतदाता सूची से हटाना बताया गया है।
  • हालांकि, इस प्रक्रिया ने देश की लोकतांत्रिक संरचना में जन-बहिष्करण (Disenfranchisement) और निर्वासन (Deportation) की चिंताओं को जन्म दिया है, विशेष रूप से जब यह कार्य विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में हो रहा हो।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर SIR के समान प्रयास 

  • भारत में मतदान का अधिकार संविधान प्रदत्त एक मौलिक लोकतांत्रिक वादा है, जो कई पश्चिमी लोकतंत्रों की परंपराओं से भिन्न है।
  • ब्रिटेन में प्रारंभिक मताधिकार व्यवस्थाएँ जे.एस. मिल जैसे विचारकों की सोच से प्रभावित थीं, जहाँ “प्रबुद्ध” नागरिकों को ही मत देने का अधिकार दिया गया और “अज्ञानी” वर्ग को इससे वंचित रखा गया। इस कारण केवल पुरुष संपत्तिधारकों को ही मताधिकार प्राप्त था। अंततः 1918 में सभी पुरुषों को सार्वभौमिक मताधिकार मिला और 1928 में महिलाओं को भी मतदान का अधिकार प्रदान किया गया।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका में, यद्यपि 15वें (1870) एवं 19वें (1920) संशोधन द्वारा क्रमशः अफ्रीकी-अमेरिकियों और महिलाओं को मतदान का अधिकार दिया गया, फिर भी मतदान कर (Poll tax), साक्षरता परीक्षा (Literacy test) जैसी व्यवस्थाओं ने दशकों तक कई नागरिकों को प्रभावी रूप से मताधिकार से वंचित किया। 

भारत में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार

  • अनुच्छेद 326: इसने प्रत्येक वयस्क नागरिक को मतदान का अधिकार प्रदान किया, चाहे उसका लिंग, जाति, धर्म, शिक्षा या संपत्ति की स्थिति कुछ भी हो। यह उस समय हुआ जब अधिकांश विश्व इस दिशा में अत्यंत सतर्कता से अग्रसर हो रहा था।
  • 61वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1989: इस संशोधन द्वारा भारत में मतदान की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई, जिससे युवाओं को राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने का संवैधानिक अवसर मिला।
  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): इस ऐतिहासिक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने लोकतंत्र को संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) का अभिन्न अंग घोषित किया। इससे यह स्थापित हुआ कि नागरिकों को स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से सरकार चुनने का अधिकार भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला है।
  • जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950: यह अधिनियम निर्वाचक नामावलियों की तैयारी और पुनरीक्षण की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है।
  • जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951: यह अधिनियम चुनाव की प्रक्रिया, प्रत्याशियों की पात्रता, तथा निर्वाचन अपराधों एवं विवादों से संबंधित प्रावधानों को विनियमित करता है।

मतदान के अधिकार की कानूनी स्थिति

भारत में मतदान के अधिकार की विधिक स्थिति पर लंबे समय से विचार-विमर्श होता रहा है। डॉ. भीमराव आम्बेडकर और के.टी. शाह ने संविधान में इस अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में शामिल करने का प्रस्ताव दिया था, परंतु संविधान सभा की सलाहकार समिति ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

कुलदीप नायर बनाम भारत संघ (2006): इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि मतदान का अधिकार जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 62 के तहत वैधानिक अधिकार है, न कि मौलिक या संवैधानिक अधिकार।

राजबाला बनाम हरियाणा राज्य (2015): इस मामले में दो-न्यायाधीशों की पीठ ने मतदान के अधिकार को संवैधानिक अधिकार बताया, लेकिन चूँकि कुलदीप नायर निर्णय पाँच-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया था, अतः वही निर्णय बाध्यकारी माना जाता है, जिसमें मतदान को केवल वैधानिक अधिकार माना गया है।

अनूप बरनवाल बनाम भारत संघ (2023): इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जब तक संसद द्वारा कोई कानून नहीं बनाया जाता, तब तक प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के प्रधान न्यायाधीश की समिति राष्ट्रपति को मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए परामर्श देगी, जिससे चुनाव आयोग की स्वतंत्रता सुनिश्चित की जा सके।

  • हालाँकि, न्यायालय ने मतदान के अधिकार पर कोई मत व्यक्त करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि इस विषय पर पहले ही कुलदीप नायर मामले में संविधान पीठ द्वारा निर्णय दिया जा चुका है।

मतदाता सूची की सटीकता का महत्व

सटीक निर्वाचक नामावली का महत्व: जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 के तहत स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की नींव शुद्ध एवं अद्यतित मतदाता सूची पर आधारित होती है। यदि नामावली में त्रुटियाँ—जैसे नामों की चूक, एकाधिक प्रविष्टियाँ या अपात्र व्यक्तियों की प्रविष्टियाँ—हों, तो इससे “एक व्यक्ति, एक मत” सिद्धांत का उल्लंघन होता है और जनादेश की विश्वसनीयता प्रभावित होती है।

निर्वाचन आयोग की भूमिका एवं कानूनी प्रावधान: अधिनियम की धारा 21 के तहत निर्वाचन आयोग को मतदाता सूचियों की तैयारी और समय-समय पर पुनरीक्षण का अधिकार प्राप्त है, जिससे मतदाता सूची की निष्पक्षता और प्रामाणिकता सुनिश्चित की जा सके।

नामावली शुद्धिकरण में संतुलन की आवश्यकता: यदि किसी योग्य मतदाता को अनुचित रूप से वंचित किया जाए या किसी अपात्र को शामिल किया जाए, तो दोनों ही स्थितियाँ लोकतंत्र को क्षति पहुँचाती हैं। अतः शुद्धिकरण प्रक्रिया को रोकने के बजाय, इसे और अधिक समावेशी और सटीक बनाए जाने की दिशा में प्रयास किए जाने चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय का सुझाव: न्यायालय ने मतदाता पहचान के लिए अधिक दस्तावेजों को मान्यता देने की सिफारिश की है, जिससे मतदाता समावेशन को बढ़ावा मिलेगा और प्रतिनिधित्व के अधिकार की रक्षा सुनिश्चित होगी।

राजनीतिक दलों की भूमिका: लक्ष्मी चरण सेन बनाम ए.के.एम. हसन उज्जमाँ (1985) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मतदाता सूची में नाम सम्मिलित कराने अथवा आपत्ति दर्ज कराने का अधिकार व्यक्तिगत होता है, न कि राजनीतिक दलों का।

  • न्यायालय ने यह भी कहा कि भारत जैसे देश, जहाँ साक्षरता और राजनीतिक जागरूकता सीमित है, वहाँ राजनीतिक दलों को यह सुनिश्चित करने में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए कि योग्य मतदाता सूची में शामिल हों और अपात्रों को बाहर किया जाए। भारत की दलीय संसदीय प्रणाली को देखते हुए, ऐसी सतर्कता निर्वाचन की निष्पक्षता बनाए रखने में सहायक सिद्ध होगी।

साधारण निवासी

निर्वाचन आयोग की संवैधानिक भूमिका: अनुच्छेद 324 के अंतर्गत निर्वाचन आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के आयोजन की जिम्मेदारी दी गई है, जिसमें शुद्ध और सटीक निर्वाचक नामावली का निर्माण भी सम्मिलित है। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 19 के अनुसार, कोई भी नागरिक जिसकी आयु 18 वर्ष या उससे अधिक है, और जो किसी निर्वाचन क्षेत्र में सामान्यतः निवासरत (ordinarily resident) है तथा अपात्र घोषित नहीं है, वह मतदाता के रूप में पंजीकरण हेतु पात्र है।

‘सामान्य निवास’ की परिभाषा: मतदाता के रूप में पंजीकरण के लिए, किसी व्यक्ति का उस निर्वाचन क्षेत्र में नियमित, वास्तविक और स्थायी निवास होना चाहिए। यह अस्थायी या आकस्मिक निवास को नहीं माना जाता। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि मतदाताओं का अपने क्षेत्र से वास्तविक जुड़ाव हो, जिससे जवाबदेही और प्रतिनिधित्व की प्रामाणिकता बनी रहे।

  • न्यायिक स्पष्टता (मनमोहन सिंह मामला, 1991): इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि “सामान्य निवास” का अर्थ केवल नाममात्र या अस्थायी पते से नहीं है, बल्कि इसका तात्पर्य नियमित और वास्तविक उपस्थिति से है।

विशेष मतदान प्रावधान: 1961 के नियमों की नियम 18 के अंतर्गत सेवा मतदाताओं (जैसे सशस्त्र बलों के सदस्य, विदेश में कार्यरत सरकारी कर्मचारी) को डाक मतपत्र (Postal Ballot) की सुविधा दी जाती है। अनुच्छेद 20A के तहत प्रवासी भारतीय नागरिक (Overseas Citizens of India) पंजीकरण करा सकते हैं, किंतु उन्हें स्वयं उपस्थित होकर मतदान करना होता है क्योंकि उन्हें डाक या प्रतिनिधि मतदान की अनुमति नहीं है।

नागरिकता सत्यापन संबंधी चिंताएँ (लाल बाबू हुसैन मामला, 1995): इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्वाचन आयोग के 1992 और 1994 के दो निर्देशों को निरस्त कर दिया, जिनके अंतर्गत जिलाधिकारियों एवं निर्वाचक पंजीकरण अधिकारियों (EROs) को मतदाता सूचियों से संभावित विदेशियों के नाम हटाने का अधिकार दिया गया था।

  • न्यायालय ने कहा कि इन निर्देशों में यह मान लिया गया कि संबंधित व्यक्ति को अपनी नागरिकता का प्रमाण प्रस्तुत करना होगा, जबकि कई मामलों में वे व्यक्ति पूर्व में भी मतदान कर चुके थे। इससे नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों और नागरिक अधिकारों का उल्लंघन होता है।

प्रक्रियात्मक न्याय अनिवार्य है: लाल बाबू और मो. रहीम अली बनाम भारत संघ (2024) के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मतदाता सूची से किसी का नाम हटाना केवल विश्वसनीय साक्ष्य के आधार पर ही किया जाना चाहिए, केवल शंका के आधार पर नहीं। खासकर जब बिहार जैसे राज्यों में विशेष सत्यापन प्रक्रिया (SIR – Special Intensive Revision) चल रही हो, तब यह आवश्यक है कि हर कार्यवाही संविधानिक सुरक्षा और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप हो।

Source: The Hindu

https://www.thehindu.com/news/national/bihar/the-need-to-safeguard-the-right-to-vote/article69796056.ece

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