संदर्भ:
गोटीपुआ बाल कलाकार, युवावस्था में पहुंचने पर अनिश्चित भविष्य का सामना करते हैं, क्योंकि उनके पास नौकरी के लिए आवश्यक कौशल नहीं रह जाता।
अन्य संबंधित जानकारी
- केवल लड़कों के लिए बनाई गई इस नृत्य शैली में, एक कलाकार के रूप में बच्चे की यात्रा प्रायः युवावस्था में ही समाप्त हो जाती है, जिससे उन्हें किसी कार्यालय में नौकरी करने के लिए आवश्यक शिक्षा या एक व्यवसायी के लिए अपेक्षित कौशल नहीं मिल पाते।
- गोटीपुआ नर्तकों की यात्रा में 10 वर्षों तक 20,000 घंटों का कठोर प्रशिक्षण शामिल होता है।
गोटीपुआ नृत्य का इतिहास
- उड़िया भाषा में, “गोटी” का अर्थ है “अकेला” और “पुआ” का अर्थ है “लड़का”। गोटीपुआ नृत्य उड़ीसा में भगवान जगन्नाथ और भगवान कृष्ण की स्तुति करने के लिए महिलाओं की पोशाक पहने हुए छोटे लड़कों द्वारा किया जाता था।
- नृत्य का वास्तविक रूप लड़कों के एक समूह द्वारा निष्पादित किया जाता है जो राधा और कृष्ण के जीवन से प्रेरित कलाबाजियाँ करते हैं। लड़के छोटी उम्र से ही नृत्य सीखना शुरू कर देते हैं और किशोरावस्था तक पहुंचते-पहुंचते उनका उभयलिंगी रूप लुप्त हो जाता है।
- लगभग 16वीं शताब्दी में (भोई वंश के संस्थापक भोई राजा रामचंद्र देव के समय में), वैष्णव धर्म के कारण देवदासी (महारी) नर्तकियों के पतन के साथ, परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए उड़ीसा में इन बाल नर्तकों का वर्ग अस्तित्व में आया।
- गोटीपुआ गुरुकुल राजाओं और जमींदारों के संरक्षण में फला-फूला।
- गोटीपुआ का दर्शन सखीभाव संस्कृति में अंतर्निहित है, जहां भक्त स्वयं को भगवान कृष्ण की पत्नियां मानते हैं।
नृत्य की विशेषताएँ
- यह मुख्यतः ओडिसी शैली का लास्य (स्त्रीलिंग) नृत्य है।
- नृत्य हेतु गायन नर्तकों द्वारा स्वयं किया जाता है।
- इसके प्रदर्शनों की सूची में वंदना (ईश्वर या गुरु से प्रार्थना), अभिनय (गीत का मंचन) और बंध नृत्य (कलाबाजी की लय) शामिल हैं।
- गोटीपुआ नृत्य में संगीत की संगत मर्दला (पखावज), गिनी (छोटी झांझ), हारमोनियम, वायलिन और बांसुरी द्वारा प्रदान की जाती है।
- इसमें सैकड़ों विचित्र संगीत वाद्ययंत्रों, जैसे- संचार, सम्प्रदाय, घुमरा, मादल और घंटा वाद्य का भी प्रयोग किया जाता है।
- दलखाई, रसेरकेली, नचनिया, बजनिया, मैलाझारा और चुटकाचुटा जैसी विभिन्न नृत्य शैलियाँ मानव जीवन के विभिन्न भावों और रंगों का अन्वेषण करती हैं।
- गोटीपुआ में लड़कियों को नृत्य से दूर रखा जाता था, क्योंकि महीने में कुछ दिन उनका शरीर अशुद्ध रहता था और वे ऐसी अवस्था में मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकती थीं।