संबंधित पाठ्यक्रम

सामान्य अध्ययन-3: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव आकलन।

संदर्भ: हाल ही में, मणिपुर में 37,000 साल पुराने काँटेदार बाँस का जीवाश्म मिला है। यह खोज बाँस में काँटेदार संरचना का एशियाई संदर्भ में सबसे पुराना साक्ष्य है और हिमयुग की पारिस्थितिकी को समझने के लिए नई अंतर्दृष्टि प्रदान करती है।

अन्य संबंधित जानकारी

  • वैज्ञानिकों को मणिपुर की इंफाल घाटी में चिरांग नदी के गाद-युक्त जमाव  में एक बाँस के तने का जीवाश्म मिला।
  • शोधकर्ताओं ने विस्तृत आकारिकी विश्लेषणों के आधार पर यह पता लगाया कि यह जीवाश्म चिमोनोबाम्बुसा जीनस से संबंधित एक नई प्रजाति का है।

खोज के मुख्य निष्कर्ष

• यह खोज दर्शाती है कि उत्तर प्लीस्टोसीन युग के दौरान भी काँटेदार बाँस, एशिया में मौजूद था और इसने कठोर हिमयुग की स्थितियों का सामना किया।

• यह अध्ययन पूर्वोत्तर भारत (इंडो-बर्मा जैव विविधता हॉटस्पॉट) को एक पारिस्थितिक शरण स्थल के रूप में उजागर करता है, जहाँ बाँस तब भी मौजूद रहा, जब वह कई अन्य क्षेत्रों से विलुप्त हो गया था।

  • पारिस्थितिक शरण स्थल (Ecological Refugium) एक भौगोलिक क्षेत्र होता है जहाँ कोई आबादी, प्रजाति, या समुदाय प्रतिकूल अवधि जैसे कि एक हिमयुग या जलवायु परिवर्तन की अवधि के दौरान भी जीवित रह सकता है।

• इस जीवाश्म की आकारिकीय विशेषताएँ असाधारण रूप से संरक्षित हैं, जिनमें पर्वसंधि (Nodes), पर्व (Internodes), पर्वसंधि कलिकाएँ (Nodal Buds) और सुस्पष्ट काँटेदार आधार के निशान शामिल हैं। काँटेदार आधार के ये दुर्लभ जीवाश्म बाँस में प्रारंभिक रक्षात्मक तंत्र की उपस्थिति को दर्शाते हैं।

• यह खोज एशिया में काँटेदार बाँस का सबसे प्रारंभिक जीवाश्म प्रमाण है और इस क्षेत्र से चतुर्थक युग के बाँस का पहला ज्ञात रिकॉर्ड है।

• यह खोज दर्शाती है कि बाँस की काँटेदार प्रकृति (काँटों, शूलों या नुकीले उभारों वाला पौधा) कहीं अधिक पहले विकसित हुई होगी और यह शाकाहारी जीवों के खिलाफ एक रक्षा तंत्र के रूप में कार्य करती थी।

खोज का वैज्ञानिक महत्त्व 

  • यह जीवाश्म वैश्विक बाँस जीवाश्म रिकॉर्ड में एक प्रमुख अंतराल को पाटता है, जिससे बाँस के विकास और जलवायु अनुकूलन के संबंध में नई जानकारी मिलती है।
  • यह शोध दर्शाता है कि उत्तर प्लीस्टोसीन के दौरान काँटेदार बाँस की प्रजातियाँ एशिया में मौजूद थीं, जो पेरू से प्राप्त बाँस में काँटेदार प्रवृत्ति के नियोजीन (Neogene) मूल को इंगित करने वाले पिछले साक्ष्यों के अनुरूप है।
  • यह अध्ययन इस समझ को बढ़ाता है कि चतुर्थक  काल के दौरान बदलती जलवायु परिस्थितियों और शाकाहारी जीवों के दबावों के प्रति बाँस ने कैसी प्रतिक्रिया दी।

बाँस के बारे में 

  • बाँस की सबसे अधिक विविधता पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया तथा हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के द्वीपों पर पाई जाती है, जबकि अरुंडिनारिया (Arundinaria) की कुछ प्रजातियाँ दक्षिणी संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थानिक हैं।
  • बाँस, पोएसी (Poaceae) घास परिवार के Bambusoideae उप-परिवार से संबंधित है, जिसमें 115 से अधिक वंश और 1,400 प्रजातियाँ शामिल हैं। यह मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय,उपोष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण क्षेत्रों में पायी जाती है।
  • बाँस तेजी से वृद्धि करने वाले बारहमासी पौधे हैं, जिनकी कुछ प्रजातियाँ प्रति दिन 30 सेंटीमीटर तक बढ़ सकती हैं। इनमें मोटे भूमिगत प्रकंदों (rhizomes) से गुच्छों के रूप में निकलने वाले काष्ठीय, वलयित, खोखले तने होते हैं।
  • बाँस की प्रजातियों का आकार बहुत भिन्न होता है, जहाँ सबसे छोटी किस्मों में तने की ऊँचाई 10-15 सेंटीमीटर तक होती है, वहीं सबसे बड़ी किस्मों में यह 40 मीटर से अधिक तक हो सकती है। अधिकांश प्रजातियों में 12 से 120 वर्षों के बाद केवल एक बार फूल लगते हैं, और मुख्यतः कायिक रूप से  प्रजनन करती हैं।
  • भारत में, वैज्ञानिक समुदाय और वनस्पतिशास्त्रियों ने बाँस को हमेशा घास परिवार (पोएसी) के रूप में वर्गीकृत किया है। हालाँकि, लगभग एक शताब्दी तक, भारतीय वन अधिनियम, 1927 के तहत बाँस को कानूनी तौर पर एक वृक्ष के रूप में वर्गीकृत किया गया था।
  • 2017 में भारत सरकार द्वारा भारतीय वन अधिनियम, 1927 में संशोधन द्वारा इस कानूनी वर्गीकरण को बदल दिया गया।

Source:
PIB
India Today
Guadua Bamboo
Britannica

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