संबंधित पाठ्यक्रम:

सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 1: भूकंप, सुनामी, ज्वालामुखी हलचल, चक्रवात आदि जैसी महत्वपूर्ण भू-भौतिकी घटनाएँ, भूगोलीय विशेषताएं और उनके स्थान, अति महत्वपूर्ण भूगोलीय विशेषताओं (जल स्रोत और हिमावरण सहित) और वनस्पति एवं प्राणी-जगत में परिवर्तन और इस प्रकार के ऐसे परिवर्तनों के प्रभाव।

सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 3: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन|

संदर्भ: 

हाल ही में हिमालयी क्षेत्र विशेष रूप से हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में आई विनाशकारी बाढ़, एक गंभीर वास्तविकता को रेखांकित करती है| दरअसल, इस तरह की चरम मौसमी घटनाएं दिनोंदिन गंभीर होती जा रहीं हैं।

अन्य संबंधित जानकारी

  • हाल की आपदा अप्रत्याशित नहीं थी|  वैज्ञानिक अध्ययनों, सामुदायिक अनुभवों और पारिस्थितिक चेतावनियों के माध्यम से लम्बे समय से इसकी आशंका जताई जा रही थी।

आपदा के कारण

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव:

  • तापमान में एकाएक वृद्धि: पश्चिमी और मध्य हिमालय वैश्विक औसत (50 वर्षों में 1.8°C) से लगभग दोगुना तेजी से गर्म हो रहा है, जिससे हिमनद जल्दी पिघल रहे हैं|
  • अनियमित मौसम पैटर्न: तापमान वृद्धि के परिणामस्वरूप वर्षा में अनियमितता बनी हुई है, जिसमें हिंसक मानसूनी तूफान का आना भी शामिल है।
  • हिमनद झील विस्फोट बाढ़ (GLOFs) का जोखिम: हिमनदों के तेज़ी से पीछे हटने से हिमनद झीलों से अचानक विस्फोट का खतरा बढ़ जाता है। पूर्वी हिमालय में 2023 की सिक्किम आपदा GLOFs का उदाहरण है| 
  • प्रतिबद्ध तापन : पिछले औद्योगिक उत्सर्जनों ने “प्रतिबद्ध वार्मिंग” (committed warming) को बंद कर दिया है, जिससे अपरिवर्तनीय जलवायु परिणाम सामने आए हैं जोकि पहले से ही अनुभव किए जा रहे हैं (2022 और 2023 की IPCC रिपोर्ट)।

मानवजनित गतिविधियाँ:

  • विनाशकारी अवसंरचना विकास: जलविद्युत परियोजनाओं और राजमार्ग निर्माण में नदी तल को विस्फोट करके नष्ट करना और अस्थिर ढलानों में निर्माण कार्य करना शामिल है, जिससे सुभेद्य पारिस्थितिकी तंत्र अस्थिर हो जाता है।
  • अनियमित पर्यटन: सामूहिक पर्यटन, क्षेत्र को स्थायी रूप से लाभ पहुंचाने के बजाय प्लास्टिक कचरे, क्षतिग्रस्त मार्गों और समग्र पारिस्थितिक असंतुलन के माध्यम से पर्यावरणीय क्षरण में योगदान देता है।

संस्थागत अंतराल और कार्यान्वयन में विफलताएँ:

  • कार्यान्वयन योग्य योजनाओं का अभाव: हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (SDMAs) खतरे के मानचित्रों और रणनीतिक रूपरेखाओं के साथ व्यापक रिपोर्ट तैयार करते हैं, लेकिन ये सैद्धांतिक ही रहते हैं और इन्हें वास्तविकता के धरातल पर नहीं उतारा जाता| 
  • कार्यान्वयन का अभाव: इन रिपोर्टों में अक्सर स्पष्ट कार्यान्वयन योग्य समयसीमा और पर्याप्त बजट का आवंटन नहीं होता है, जिससे प्रभावी आपदा तैयारी और शमन में बाधा आती है।

हिमालय पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

  • जन-धन की हानि: मानवों का हताहत होना, विस्थापन, और कृषि भूमि एवं घरों को नुकसान|
  • आर्थिक आघात: बुनियादी ढाँचे, पर्यटन उद्योग और कृषि क्षेत्र को भारी नुकसान, जिससे दीर्घकालिक आर्थिक सुधार की चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं।
  • पर्यावरणीय क्षरण: मृदा अपरदन में वृद्धि, जैव विविधता का ह्रास, और सुभेद्य हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान।
  • सामाजिक व्यवधान: आवश्यक सेवाओं में व्यवधान, मनोवैज्ञानिक आघात, और हाशिए पर रहने वाले समुदायों की बढ़ती भेद्यता।

आगे की राह

  • घरों और बस्तियों का पुनर्निर्माण इंजीनियर्ड टेरेस यानी ऊँची, पत्थर की दीवारों से समर्थित, और मिट्टी को स्थिर रखने वाली गहरी जड़ों युक्त घासों द्वारा समर्थित जगह के ऊपर ही किया जाना चाहिए|
  • जहाँ तक पहाड़ी ढलानों को पार करने वाली सड़कों का सवाल है, तो 30% से भी कम सड़कें बुनियादी ढलान जल निकासी कोड के अनुरूप बनी हैं। 
  • ऐसा बुनियादी ढाँचा बनाएँ जिसका डिज़ाइन बाढ़-अनुकूल हो।
  • आपदा न्यूनीकरण एजेंसियों को धन, लेखा परीक्षा और जवाबदेही के साथ योजनाबद्ध तरीके से कार्यान्वयन की ओर बढ़ना चाहिए।
  • पूर्व तैयारी नागरिकों की दिनचर्या बननी चाहिए।
  • हमें एक भौतिक आध्यात्मिकता को बहाल करना होगा, जो हिमालय को एक संसाधन बैंक के रूप में नहीं, बल्कि एक जीवंत ब्रह्मांड के रूप में देखे।

Source: The Hindu 

https://www.thehindu.com/opinion/op-ed/himalayan-floods-are-here-to-stay/article69812395.ece

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