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सामान्य अध्ययन-2: कार्यपालिका और न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्य- सरकार के मंत्रालय एवं विभाग, प्रभावक समूह और औपचारिक/अनौपचारिक संघ तथा शासन प्रणाली में उनकी भूमिका।
संदर्भ:
सुप्रीम कोर्ट की पाँच-जजों की संविधान पीठ ने अपने परामर्शात्मक निर्णय में कहा है कि कोर्ट संविधान के दायरे में रहते हुए राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा बिलों को मंज़ूरी देने संबंधी निर्णयों पर कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं कर सकता।
अन्य संबंधित जानकारी
- सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 143 के तहत दिए गए 16वें राष्ट्रपति संदर्भ पर अपनी राय व्यक्त की, जिसमें राज्यों के बिलों को मंज़ूरी देने से जुड़ी राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों पर उठाए गए 13 संवैधानिक प्रश्नों पर विचार किया गया।
- इससे पहले, तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल (2025) मामले में दो-जजों की पीठ ने एक निर्णय दिया था, जिसमें राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित बिलों पर कार्रवाई करने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए एक समय-सीमा निर्धारित कर दी गई थी।
निर्णय के प्रमुख बिन्दु
न्यायपालिका समयसीमा निश्चित नहीं कर सकती:
- सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि न्यायालय अनुच्छेद 200 और 201 के तहत विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति या राज्यपालों पर कठोर समय-सीमा नहीं लगा सकते और न ही “मानित सहमति” (Deemed Assent) का सिद्धांत लागू कर सकते हैं।
- इन संवैधानिक कार्यों का निष्पादन कार्यकारी (एक्जीक्यूटिव) डोमेन के अंतर्गत आता है और यह न्यायालयों द्वारा अनिवार्य निश्चित प्रक्रियात्मक समय-सीमा के अधीन नहीं है।
- न्यायिक समय-सीमाएँ थोपने से शक्तियों के पृथक्करण (Separation Of Powers) के संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन होगा और न्यायपालिका तथा कार्यपालिका के बीच का संतुलन बिगड़ जाएगा।
संवैधानिक प्रावधान
- अनुच्छेद 142: सुप्रीम कोर्ट को यह शक्ति देता है कि वह अपने समक्ष आए किसी भी मामले में पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक आदेश पारित कर सके।
- अनुच्छेद 143: राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वह जन-हित वाले कानूनी या तथ्यात्मक प्रश्नों पर सुप्रीम कोर्ट से परामर्श मांग सके।
- अनुच्छेद 200: राज्य विधानमंडल द्वारा पारित बिल को मंज़ूरी के लिए प्रस्तुत किए जाने पर गवर्नर के उपलब्ध विकल्पों का विवरण देता है।
- अनुच्छेद 201: किसी बिल को जब राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित किया जाता है, तब उसकी आगे की प्रक्रिया को निर्धारित करता है।
राज्यपालों को संवैधानिक दायित्वों के साथ कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए:
- यद्यपि न्यायालय ने कोई समय-सीमा निर्धारित करने से इनकार कर दिया, फिर भी उसने इस बात पर बल दिया कि राज्यपालों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने कर्तव्यों का निर्वहन शीघ्रता से और संवैधानिक नैतिकता के अनुसार करें।
- अनिश्चितकालीन देरी या जानबूझकर की गई रुकावटें लोकतंत्र को कमजोर करती हैं और सीमित न्यायिक जाँच (Scrutiny) या निर्देशों को आकर्षित कर सकती हैं।
राज्य विधेयकों पर राष्ट्रपति की भूमिका:
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब विधेयक राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखे जाते हैं, तब भी यह प्रक्रिया कार्यपालिका के विवेक के दायरे में रहती है और इसे न्यायिक समय-सीमाओं द्वारा बाधित नहीं किया जा सकता।
- फिर भी, राष्ट्रपति द्वारा समय पर निर्णय लेना एक महत्वपूर्ण संवैधानिक मानदंड और अपेक्षा बनी हुई है।
राज्यपाल के विवेक का दायरा:
- न्यायालय ने इस बात की पुनः पुष्टि की कि राज्यपाल एक समानांतर सत्ता केंद्र (Parallel Power Centre) के रूप में कार्य नहीं करते; उनकी विवेकाधीन शक्तियाँ सीमित हैं और संवैधानिक रूप से निर्दिष्ट क्षेत्रों को छोड़कर, सामान्यतः उन्हें मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के अनुरूप ही कार्य करना चाहिए।
- इसके अतिरिक्त, विधेयकों को लौटाने की राज्यपाल की शक्ति का उपयोग राजनीतिक रूप से कानून को बाधित करने के उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिए या एक समानांतर सत्ता केंद्र के रूप में कार्य नहीं करना चाहिए।
फैसले के निहितार्थ
- सहकारी संघवाद को मजबूती: यह फैसला सुगम विधायी-कार्यकारी समन्वय को प्रोत्साहित करता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि संवैधानिक पद संघीय मानदंडों का सम्मान करें।
- संवैधानिक देरी को सीमित करना: यद्यपि न्यायालय समय-सीमाएँ लागू नहीं कर सकता, फिर भी त्वरित और ज़िम्मेदार कार्रवाई पर इसका बल भविष्य के कार्यकारी व्यवहार को निर्देशित कर सकता है।
- संवैधानिक पदों के लिए मार्गदर्शन: यह फैसला राज्य विधेयकों के संबंध में राज्यपालों और राष्ट्रपति के कामकाज पर स्पष्ट संवैधानिक व्याख्या प्रदान करता है, जो विवादों को सुलझाने और भविष्य के मुकदमों से बचने में सहायक है।
