संदर्भ:

आर्थिक सर्वेक्षण ने यूरोपीय संघ के आगामी कार्बन सीमा कर, जिसे कार्बन सीमा समायोजन तंत्र (CBAM) के रूप में जाना जाता है, के बारे में चिंता व्यक्त की है। 

अन्य संबंधित जानकारी

  • ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव की रिपोर्ट के अनुसार, भारत उन शीर्ष आठ देशों में शामिल है जिन पर कार्बन सीमा समायोजन तंत्र का नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। 
  • यूरोप के साथ-साथ ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका भी समय के साथ कार्बन सीमा समायोजन कर के अपने प्रारूप लागू करने के विभिन्न चरणों में हैं।

यूरोपीय संघ कार्बन सीमा समायोजन तंत्र

  • यूरोपीय संघ के अनुसार, कार्बन सीमा समायोजन तंत्र वह साधन है, जो यूरोपीय संघ में प्रवेश करने वाले कार्बन-गहन वस्तुओं के उत्पादन के दौरान उत्सर्जित कार्बन पर उचित मूल्य निर्धारित करता है तथा गैर-यूरोपीय संघ देशों में स्वच्छ औद्योगिक उत्पादन को प्रोत्साहित करता है।
  • इसमें लोहा, इस्पात और एल्युमीनियम जैसे ऊर्जा-गहन आयातों पर शुल्क लगाने का प्रस्ताव है, ताकि स्थानीय निर्माताओं को कम कठोर उत्सर्जन मानदंडों वाले देशों से आयात की तुलना में प्रतिस्पर्धात्मक नुकसान का सामना न करना पड़े।
  • कार्बन सीमा समायोजन तंत्र को 01 जनवरी, 2026 को क्रियान्वित किया जाना है, जबकि वर्तमान संक्रमणकालीन चरण वर्ष 2023 से वर्ष 2025 के बीच चलेगा।

जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता

  • पेरिस समझौता एक कानूनी रूप से बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय संधि है जिसे वर्ष 2015 में पेरिस (फ्रांस) में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP21) में 196 पक्षों द्वारा अपनाया गया था और 04 नवंबर, 2016 को लागू हुआ।
  • समझौते का व्यापक लक्ष्य ग्लोबल वार्मिंग को पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित करना और वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के प्रयासों को आगे बढ़ाना है।
  • इसे प्राप्त करने के लिए, देश ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और जलवायु प्रभावों के प्रति लचीलापन बनाने के लिए अपने कार्यों की रूपरेखा तैयार करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDCs) प्रस्तुत करते हैं।

आर्थिक सर्वेक्षण में उठाई गई चिंताएं

संरक्षणवाद पर चिंताएं

  • आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 में तर्क दिया गया है कि यूरोपीय संघ की कार्बन कर नीति (कार्बन सीमा समायोजन तंत्र) पेरिस समझौते के सिद्धांतों का खंडन करती है, जिसमें ‘साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों’ को मान्यता दी गई है।

विकासशील देशों पर प्रभाव

  • समीक्षा में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि विकसित देशों के संरक्षणवादी उपायों के कारण भारत सहित अन्य विकासशील देशों को भी महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।
  • वर्ष 2022 में भारत के लोहा, इस्पात और एल्युमीनियम निर्यात का 27% हिस्सा, जिसकी कीमत 8.2 बिलियन डॉलर है, यूरोपीय संघ को भेजा गया। कार्बन सीमा समायोजन तंत्र से इन प्रमुख क्षेत्रों में भारत के निर्यात पर असर पड़ने की आशंका है।

जलवायु वित्त में चुनौतियाँ

  • सर्वेक्षण में जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के लिए धन जुटाने की चुनौती की ओर इशारा किया गया है। वर्ष 2070 तक अपने शुद्ध शून्य लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, भारत को सालाना 28 बिलियन डॉलर की आवश्यकता है।
  • भारत की जलवायु संबंधी कार्रवाइयों को मुख्य रूप से घरेलू स्रोतों से वित्तपोषित किया गया है, तथा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सहायता न्यूनतम है।
  • घरेलू स्रोत हरित वित्त में मुख्य योगदानकर्ता रहे हैं, जिनका वित्तीय वर्ष 2019 और 2020 में क्रमशः 87% और 83% योगदान रहा।

कार्बन सीमा करों के विरुद्ध तर्क

  • संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास सम्मेलन (UNCTAD) का अनुमान है कि 44 डॉलर प्रति टन के कार्बन सीमा समायोजन तंत्र से वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में केवल 0.1% की कमी आएगी, जबकि वैश्विक वास्तविक आय में 3.4 बिलियन डॉलर की कमी आएगी। विकसित देशों को 2.5 बिलियन डॉलर का लाभ होगा, जबकि विकासशील देशों को 5.9 बिलियन डॉलर का नुकसान होगा। 
  • वैश्विक मूल्य शृंखलाओं ने विनिर्माण जैसी कार्बन-उत्सर्जक गतिविधियों को दक्षिण में बाहरी स्रोत को ठेके पर दिया है, जबकि ब्रांडिंग और वित्तपोषण जैसी कम कार्बन-उत्सर्जक गतिविधियाँ उत्तर में बनी हुई हैं। यह उत्तर में ऊर्जा दक्षता को दक्षिण में अकुशलता से जोड़ता है। 
  • व्यापारिक वस्तुओं और सेवाओं में कार्बन उत्सर्जन वैश्विक उत्सर्जन का केवल 27% है, जो दर्शाता है कि वैश्विक हरित विकास को हासिल करने पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नीति का प्रभाव सीमित है।

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