संदर्भ:

चीनी वैज्ञानिकों ने रासायनिक रूप से प्रेरित प्लुरिपोटेंट स्टेम कोशिकाओं (CiPSCs) का उपयोग करके स्टेम सेल प्रत्यारोपण के माध्यम से टाइप-1 डायबिटीज के एक रोगी का सफलतापूर्वक इलाज करके एक महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है।   

रासायनिक रूप से प्रेरित प्लुरिपोटेंट स्टेम कोशिकाएँ (CiPSCs) 

  • CiPSCs को रोगी की  कोशिकाओं से प्राप्त किया जाता है और इन्हें कार्यात्मक बीटा( β) कोशिकाओं में परिवर्तित करने के लिए पुनः प्रोग्राम किया जा सकता है, जो इंसुलिन का उत्पादन करती हैं।    
  • टाइप-1 डायबिटीज के मामले में, शोधकर्ताओं ने रोगी से CiPSCs सृजित किया तत्पश्चात  पुनःप्रोग्राम किए गए कोशिकाओं को उसके शरीर में प्रत्यारोपित किया। 
  • इससे उसके अग्नाशय  ने पुनः इंसुलिन का उत्पादन शुरू कर दिया, जिससे रक्त शर्करा के स्तर में सुधार हुआ और इंसुलिन इंजेक्शन की आवश्यकता में उल्लेखनीय कमी आई।  

डायबिटीज के उपचार में CiPSCs के उपयोग के जोखिम और चुनौतियाँ 

  • प्रतिरक्षा अस्वीकृति: यद्यपि CiPSCs रोगी-विशिष्ट होते हैं, लेकिन शरीर में नव निर्मित बीटा कोशिकाओं को बाहय (विदेशी) कोशिकाओं के रूप में देख सकता है, जिसके परिणामस्वरूप प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाएं उत्पन्न हो सकती हैं। इसके  लिए प्रतिरक्षादमनकारी दवाओं की आवश्यकता हो सकती है, जिससे संक्रमण का जोखिम बढ़ सकता है।        
  • ट्यूमर का निर्माण : यदि स्टेम कोशिकाएं पूरी तरह से विभेदित नहीं होती हैं, तो वे अनियंत्रित रूप से बढ़ सकती हैं, जिससे ट्यूमर का खतरा बढ़ जाता है। 
  • दीर्घकालिक कार्यक्षमता : CiPSCs से व्युत्पन्न बीटा कोशिकाएं तनाव और वृद्ध होने का सामना कर सकती हैं, जिससे समय के साथ उनका इंसुलिन उत्पादन कम हो सकता है।   इनकी दीर्घकालिक प्रभावशीलता पर आगे और शोध की आवश्यकता होगी।      

डायबिटीज के बारे में

डायबिटीज एक दीर्घकालिक बीमारी है जो तब होती है जब अग्नाशय  पर्याप्त इंसुलिन का उत्पादन नहीं करता है या शरीर इंसुलिन का प्रभावी ढंग से उपयोग नहीं कर पाता है। 

  • इंसुलिन एक हार्मोन है जो रक्त शर्करा के स्तर को नियंत्रित करने में मदद करता है। 

डायबिटीज के प्रकार:

टाइप-1 डायबिटीज:

  • इसे किशोर डायबिटीज या इंसुलिन-आश्रित डायबिटीज के नाम से जाना जाता है।
  • टाइप-1 डायबिटीज एक आजीवन स्वप्रतिरक्षी रोग है जो अग्नाशय को इंसुलिन बनाने से रोकता है।
  • इसमें इंसुलिन का उत्पादन बहुत कम या बिलकुल नहीं होता है।  इसके लिए प्रतिदिन इंसुलिन इंजेक्शन की आवश्यकता होती है। 
  • यह डायबिटीज प्रायः बच्चों या युवा वयस्कों में विकसित होने के साथ ही  किसी भी उम्र में हो सकता है।

टाइप-2 डायबिटीज:

  • टाइप-2 डायबिटीज शरीर में ऊर्जा के लिए शर्करा (ग्लूकोज) के उपयोग को प्रभावित करता है।
  • इसका कारण अग्नाशय द्वारा पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन का उत्पादन न करना या शरीर द्वारा इंसुलिन का उचित उपयोग न करना (इंसुलिन प्रतिरोध) हो सकता है। 
  •  यह आमतौर पर वृद्धों को प्रभावित करता है, लेकिन बच्चों में भी यह तेजी से सामान्य होता जा रहा है।

टाइप-1.5 डायबिटीज:

  • टाइप-1.5 डायबिटीज, जिसे LADA (वयस्कों में लेटेंट ऑटोइम्यून डायबिटीज) के नाम से भी जाना जाता है, टाइप-1 के समान है, जिसमें इंसुलिन उत्पादक कोशिकाओं के विरुद्ध प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया होती है, लेकिन यह अधिक धीमी गति से विकसित होती है।
  • LADA से पीड़ित लोगों को प्रायः तुरन्त इंसुलिन की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन समय के साथ उन्हें इसकी आवश्यकता पड़ सकती है।

टाइप-2 डायबिटीज, टाइप-1 की तुलना में बहुत अधिक सामान्य है, जो डायबिटीज के सभी निदान मामलों में लगभग 90% से 95% के लिए जिम्मेदार है। डायबिटीज से पीड़ित केवल 5-10% लोगों में टाइप-1 होता है।

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