प्रसंग:

भारत के प्रधानमंत्री ने एकात्म मानववाद के विचार को प्रतिपादित करने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय को उनकी 108वीं जयंती पर श्रद्धांजलि अर्पित की।

एकात्म मानववाद: पंडित दीनदयाल उपाध्याय का दर्शन

अवलोकन:

  • एकात्म मानववाद दर्शन, जिसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 1960 के दशक की शुरुआत में प्रस्तुत किया था।
  • यह भारत की प्राचीन परंपराओं और संस्कृति से प्रेरित तथा व्यक्ति, समाज और ब्रह्मांड के बीच एकता और सद्भाव पर केंद्रित था।
  • यह दर्शन उच्च नैतिक अधिकार और मानव के सम्पूर्ण विकास के महत्व पर बल देता है, जिसमें शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा एकीकृत रूप में सम्मिलित है।

पश्चिमी विचारधाराओं की आलोचना:

  • पं. दीनदयाल उपाध्याय ने पश्चिमी पूंजीवाद और मार्क्सवादी समाजवाद दोनों का विरोध किया एवं तर्क दिया कि वे शारीरिक, मानसिक आवश्यकताओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं तथा आध्यात्मिक विकास की उपेक्षा करते हैं।
  • इनका मानना था कि ये विचारधाराएं भौतिकवादी हैं और संघर्षों को जन्म दे सकती हैं, जैसे- राष्ट्रवाद से विश्व शांति को खतरा या लोकतंत्र और पूंजीवाद के परिणास्वरूप होने वाला शोषण है।
  • इनके अनुसार भारत को इन पश्चिमी विचारों का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए, बल्कि अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को अपनाना चाहिए।

एकात्म मानववाद तीन मुख्य सिद्धांतों पर आधारित है:

  • संपूर्णता की प्रधानता: यह जीवन को अलग-अलग भागों के बजाय एकीकृत रूप में देखने के महत्व पर बल देता है।
  • धर्म की सर्वोच्चता: नैतिक सिद्धांतों को समाज का मार्गदर्शन करने पर बल देता है।
  • समाज की स्वायत्तता: इस विचार का समर्थन करता है कि समाज को स्वयं पर शासन करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।

मनुष्य की चार अनिवार्य आवश्यकताएं हैं:

  • काम: इच्छाएं और संतुष्टि
  • अर्थ: धन और संसाधन
  • धर्म: नैतिक कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ
  • मोक्ष: पूर्ण मुक्ति या मुक्ति

सांस्कृतिक अवधारणाएँ एवं विरासत:

  • उपाध्याय के अनुसार, प्रत्येक राष्ट्र के अपने सांस्कृतिक और सामाजिक केन्द्रीय विचार होते हैं जिन्हें ‘रीति’ कहा गया है और प्रत्येक समाज की कुछ विशेषताएं होती हैं जिन्हें ‘विराट’ के रूप में पहचाना जा सकता है। 
  • उनका मानना था कि व्यक्तियों की विशिष्ट भूमिकाएं और जिम्मेदारियां होती हैं तथा एकात्म मानववाद का सार जीवन के इन विविध पहलुओं को एकीकृत करने में निहित है।
  • उनका दर्शन आज भी प्रासंगिक है, जो समकालीन राजनीतिक चुनौतियों पर अंतर्दृष्टि प्रदान करता है तथा पारंपरिक भारतीय ज्ञान पर आधारित मानव विकास पर बल देता है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जीवन परिचय

  • उन्हें भारत के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक विचारकों में से एक माना जाता है।
  • इनका जन्म 25 सितम्बर, 1916 को मथुरा के नगला चन्द्रभान गांव में हुआ था।
  • इन्होंने कानपुर के सनातन धर्म कॉलेज से शिक्षा ग्रहण की, जहां वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में शामिल हुए।
  • उन्होंने शिक्षक के रूप में योग्यता अर्जित की तथा वर्ष 1942 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य करना शुरू किया। 
  • पंडित दीनदयाल जी ने लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन नामक संस्थान की स्थापना की और यहां से ‘राष्ट्रधर्म’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया। इसके अतिरिक्त “पांचजन्य”, “स्वदेश” जैसी अन्य पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
  • वे भारतीय जनसंघ की उत्तर प्रदेश शाखा के प्रथम महासचिव बने और बाद में अखिल भारतीय महासचिव के रूप में कार्य किया।
  • विकेन्द्रीकृत शासन तथा ग्राम पर केन्द्रित आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का समर्थन किया। 
  • उन्होंने आधुनिक प्रौद्योगिकी का समर्थन करते हुए भारतीय संदर्भों में इसके अनुकूलन पर बल दिया।
  • उन्होंने व्यावहारिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया और जनता के उत्थान का लक्ष्य रखा तथा मौजूदा विचारधाराओं के लिए एक व्यापक भारतीय विकल्प प्रस्तुत किया।

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