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सामान्य अध्ययन-2: सरकारी नीतियाँ और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिए हस्तक्षेप, उनके अभिकल्पन और कार्यान्वयन से संबंधित विषय।
सामान्य अध्ययन -2: कार्यपालिका और न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्यप्रणाली; सरकार के मंत्रालय और विभाग; दबाव समूह और औपचारिक/अनौपचारिक संघ तथा उनका राजनीति में योगदान।
संदर्भ: सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकरण सुधार (सुव्यवस्थीकरण और सेवा शर्तें) अधिनियम, 2021 के प्रमुख प्रावधानों को रद्द कर दिया है जिसका कारण असंवैधानिक और शक्तियों के पृथक्करण व न्यायिक स्वतंत्रता का उल्लंघन बताया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हटाए गए महत्वपूर्ण प्रावधान
- न्यूनतम आयु की शर्त:
- इस अधिनियम के अनुसार, केवल 50 वर्ष या उससे अधिक आयु वाले व्यक्तियों को ही अधिकरण के अध्यक्ष या सदस्य के रूप में नियुक्ति के लिए पात्र माना जा सकता था।
- इस मनमानी आयु सीमा का कोई तार्किक आधार नहीं था और 40 के दशक में इसने सक्षम व्यक्तियों को हतोत्साहित करके अधिकरणों की स्वतंत्रता और प्रभावशीलता को बाधित किया।
- अल्प सेवाकाल:
- अधिनियम में अधिकरणों के सदस्यों के लिए चार वर्ष का निश्चित सेवाकाल निर्धारित किया गया था, साथ ही अध्यक्षों के लिए अधिकतम आयु सीमा 70 वर्ष और सदस्यों के लिए 67 वर्ष तय की गई थी।
- चार वर्ष का सेवाकाल संस्थागत स्थिरता और स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत कम माना गया। इतने छोटे सेवाकाल से बार-बार परिवर्तन का जोखिम बढ़ता है और पुनर्नियुक्ति की आशंका में सदस्य कार्यपालिका के हितों के अनुरूप कार्य करने के लिए दबाव महसूस कर सकते हैं, जिससे निर्णय प्रक्रिया की निरंतरता बाधित होती है।
- पुनर्नियुक्ति की प्रकिया:
- अधिनियम में अधिकरण के अध्यक्ष और सदस्य पुनर्नियुक्ति के लिए पात्र होते हाँ, बशर्ते कि खोज-सह-चयन समिति इसकी सिफारिश करे।
- सेवा शर्तों पर कार्यपालिका का नियंत्रण
- वेतन और सेवा शर्तों पर कार्यपालिका का नियंत्रण उन पर निर्भरता बढ़ाता है, जिससे अधिकरणों की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती है।
- निश्चित और सुरक्षित सेवा शर्तें आवश्यक हैं ताकि कार्यपालिका निर्णयकर्ताओं पर वित्तीय दबाव या प्रभाव न डाल सके।
- खोज-सह-चयन समिति की संरचना: नियुक्ति समिति में सरकारी सचिवों को शामिल करने से कार्यपालिका का प्रभुत्व अत्यधिक बढ़ गया है, जिससे हितों के टकराव की आशंकाएँ उत्पन्न हुईं। ऐसी संरचना निष्पक्षता को प्रभावित करती है और अधिकरणों की स्वतंत्रता की रक्षा हेतु न्यायिक-बहुलता वाली चयन समितियों की आवश्यकता पर दिए गए पूर्व न्यायालय के निर्देशों के विपरीत है।
न्यायालय का तर्क
- शक्तियों का पृथक्करण और न्यायिक स्वतंत्रता का उल्लंघन:
- न्यायालय ने कहा कि ये प्रावधान न्यायिक स्वतंत्रता को कमजोर करते हैं, जो संविधान का एक मूलभूत मूल्य है।
- पहले से रद्द किए गए प्रावधानों को (कुछ मामूली बदलावों के साथ) दोबारा लागू करके, संसद ने बाध्यकारी न्यायिक निर्णयों को विधायी रूप से निष्प्रभावी करने का प्रयास किया।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अधिकरणों की नियुक्तियों पर कार्यपालिका का प्रभुत्व नहीं हो सकता, क्योंकि कार्यपालिका स्वयं ट्रिब्यूनलों में एक वादी (litigant) होती है।
- संवैधानिक सर्वोच्चता के सिद्धांत का उल्लंघन:
- न्यायालय ने कहा कि संसद की शक्ति ‘व्यापक है लेकिन पूर्ण नहीं।
- ‘मूल संवैधानिक दोषों’ को ठीक किए बिना रद्द किए गए प्रावधानों को दोबारा लागू करना संवैधानिक सर्वोच्चता के सिद्धांत का उल्लंघन है।
- न्यायालय के अनुसार, शक्तियों का पृथक्करण और न्यायिक स्वतंत्रता सिर्फ अस्पष्ट आदर्श नहीं, बल्कि संविधान के संरचनात्मक स्तंभ हैं।
निर्णय के निहितार्थ
- न्यायिक स्वतंत्रता: यह निर्णय अधिकरणों की स्वतंत्रता की पुष्टि करता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि निर्णय लेने वाली संस्थाएँ कार्यपालिका के हस्तक्षेप से मुक्त रहें।
- विधायी जवाबदेही: निर्णय यह सुनिश्चित करते हुए कि संसद द्वारा बनाए गए कानून, न्यायालय द्वारा निर्धारित मानकों के अनुरूप हों, संसद की शक्ति की संवैधानिक जाँच करता है।
- संस्थागत सुधार: राष्ट्रीय अधिकरण आयोग स्थापित करने का निर्देश अधिकरण प्रणाली में एकरूपता, पारदर्शिता और स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए एक संरचनात्मक तंत्र स्थापित करता है।
- न्याय तक पहुँच: अधिकरण सदस्यों के निश्चित सेवाकाल और स्वतंत्रता को सुनिश्चित करके यह निर्णय अधिकरण प्रणाली की निष्पक्षता और प्रभावशीलता को बढ़ाता है।
